11:55 pm Friday , 30 May 2025
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मजदूर दिवस को और प्रभावी बनाने के लिए मज़दूर एकता की जरूरत

मजदूर दिवस को और प्रभावी बनाने के लिए जरूरत है बड़ी मज़दूर एकता की

पहली मई को जब दुनिया भर में मई दिवस मनाया जाएगा, भारत समेत कई देशों में ट्रेड यूनियनों की प्रासंगिकता पर गंभीर सवाल भी उठेंगे.

श्रम मंत्रालय के आंकड़ों के मुताबिक, भारत में वर्तमान में 16,000 से अधिक पंजीकृत ट्रेड यूनियनें हैं, जिनमें से केवल 12 राष्ट्रीय स्तर की यूनियनें हैं। यह संख्या पिछले एक दशक में 20% कम हुई है, जबकि देश का कार्यबल 50 करोड़ से अधिक हो चुका है.

श्रम ब्यूरो के 2024 के सर्वे के अनुसार:
– केवल 7% भारतीय श्रमिक (लगभग 3.5 करोड़) संगठित क्षेत्र में काम करते हैं , – ट्रेड यूनियनों की सदस्यता पिछले 10 वर्षों में 35% घटी है ,-_- 83% कार्यबल असंगठित क्षेत्र में है जहां यूनियनों की पहुंच नगण्य है.
1886 के शिकागो हेमार्केट घटना से प्रेरित मई दिवस ने भारत में 1923 में चेन्नई से शुरुआत की थी। आजादी के बाद के दशकों में यूनियनों ने कई बड़ी उपलब्धियां हासिल कीं: – 8 घंटे कार्यदिवस -न्यूनतम मजदूरी कानून – कार्यस्थल सुरक्षा मानक, लेकिन 1991 के उदारीकरण के बाद से स्थिति बदलने लगी। अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन (ILO) के आंकड़े बताते हैं कि: – 2000-2025 के बीच हड़तालों की संख्या में 60% की कमी आई, – 75% से अधिक निजी कंपनियों में यूनियन गतिविधियां प्रतिबंधित हैं .

गिग इकॉनमी के उभार ने स्थिति और जटिल बना दी है: – ज़ोमैटो, स्विगी जैसे प्लेटफॉर्म पर 50 लाख से अधिक डिलीवरी पार्टनर्स – ओला/उबर ड्राइवर्स की संख्या 25 लाख से अधिक – इनमें से 95% कर्मचारी किसी यूनियन से नहीं जुड़े हैं.

एक पूर्व यूनियन नेता कहते हैं, “आज की अर्थव्यवस्था में, यूनियनें सिर्फ 5% कर्मचारियों की आवाज बनकर रह गई हैं। हमें गिग वर्कर्स, फ्रीलांसर्स और अनौपचारिक क्षेत्र के श्रमिकों तक पहुंचना होगा.

ट्रेड यूनियनों के सामने स्पष्ट विकल्प है – या तो नए आर्थिक युग के अनुकूल खुद को बदलें, या फिर धीरे-धीरे अप्रासंगिक होते चले जाएं। श्रमिक अधिकारों की यह लड़ाई अब सिर्फ कारखानों तक सीमित नहीं, बल्कि डिजिटल प्लेटफॉर्म्स और होम-बेस्ड वर्कर्स तक पहुंचनी होगी। एक वैश्विक, खुली हुई अर्थव्यवस्था के दौर में ट्रेड यूनियनों की अहमियत का सवाल बड़ा होता जा रहा है। कभी क्रांतिकारी बदलाव की पेशवाई करने वाली ट्रेड यूनियनें, भारत और दूसरी जगहों पर, अपनी धार खोती हुई दिख रही हैं, एक ऐसी आज़ाद बाज़ार व्यवस्था में अपनी पहचान के संकट से जूझ रही हैं जहाँ उनकी पारंपरिक भूमिकाओं पर लगातार सवाल उठाए जा रहे हैं.

निजीकरण, आउटसोर्सिंग और बढ़ती हुई गैर-संगठित कार्यबल वाली सोसाइटी में, क्या ट्रेड यूनियनें अब भी परिवर्तनकारी बदलाव के लिए इकट्ठा होने की जगह हैं, या उन्हें सिर्फ कानूनी कार्रवाई करने वाली कमेटियों तक सीमित कर दिया गया है?

दशकों में, मई दिवस वामपंथी विचारधाराओं के लिए एक मंच के रूप में विकसित हुआ, ट्रेड यूनियनों ने व्यवस्थागत असमानताओं के खिलाफ working class के मज़लूमों के हक में आवाज़ उठाई। फिर भी, आज की दुनिया में, उन शुरुआती आंदोलनों का जोश कम होता दिख रहा है क्या आज का समय स्थाई नौकरी ,पेंशन काम के घंटे के लिए आवाज उठाने का नहीं है
आइए एक बार फिर मिल जुल कर इस बार के मजदूर दिवस आयोजन को सफल बनाए

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